प्रेमपाल शर्मा
यकीन मानिए, रेल मंत्रालय में पिछले दो वर्षों से एक ‘कायाकल्प समिति’ भी काम कर रही है, जिससे प्रसिद्द उद्योगपति रतन टाटा भी जुड़े हुए हैं. इस बात के लिए तो पिछले तीन साल जरुर याद किए जाएंगे इतनी ताबड़तोड़ समितियां, इतने बड़े-बड़े नामों- काकोड़कर, विनोद राय, बिबेक देबराय, श्रीधरन आदि के साथ, कभी गठित नहीं हुई थीं. इसमें कोई हर्ज नहीं, बशर्ते उनकी सिफारशों पर काम हो. लगातार बढ़ती रेल दुर्घटनाओं ने रेलवे विभाग को ही नहीं, पूरे देश को हिला दिया है. मानवीय चूकों से हुई ये दुर्घटनाएं इक्कीसवीं सदी की रेलवे के लिए कलंक हैं. विवरण जानकर लगता है मानो रेल उन्नीसवीं सदी में चल रही है. पटरी का टुकड़ा निकल गया, तो उसकी मरम्मत तक की व्यवस्था नहीं हो पा रही.
स्टॉफ की कमी का रोना अफसर, यनियनें कब तक रोएंगी? जो ड्यूटी पर थे उनकी कार्यशैली का बयान उस टेप में है जो एक गैंगमैन बताता है कि कोई मुकम्मिल निगरानी पटरियों की नहीं होती. गैंगमैन की आत्मा का बयान गौर करने लायक है कि आटे में नमक के बराबर भी काम कर लें तो बहुत है. कार्य-संस्कृति में इतनी गिरावट? वह भी तक जब पांचवें, छठवें और सातवें वेतन आयोग ने सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहें सातवें आसमान पर पहुंचा दी हैं. स्कूल भत्ता, मकान, मेडिकल, चाइल्ड केयर लीव, यात्रा सुविधाएं, नियमित डीए और भारी पेंशन. लेकिन फिर भी काम न करना पड़े. नतीजा तीन साल में 27 प्रमुख घटनाओं को मिलाकर ज्यादा दुर्घटनाएं. सैकड़ों मृत, हजारों घायल, यह सब तंत्र की बड़ी गिरावट का संकेत है.
इस अंधेरे में कोई उम्मीद जागती है, तो पहली बार रेलवे के उच्च अधिकारियों की खबर लिया जाना और चौतरफा संवेदनशीलता. अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड का इस्तीफा, बोर्ड मेंबर, जीएम, डीआरएम को छुट्टी पर भेजा जाना, एक का ट्रांसफर और चार अधिकारियों का निलंबन भले ही विवशता में ही सही, बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों की गर्दन इससे पहले इस स्तर पर कभी नहीं नपी. रेलमंत्री ने भी इस्तीफे की पेशकश की है. पूरे देश का जनमानस फिलहाल रेलवे की अकर्मण्यता से निराश और दुखी है. हो भी क्यों न, देश की जीवन रेखा है रेलवे.
आनन–फानन नए अध्यक्ष, रेलवे बोर्ड अश्वनी लोहानी की नियुक्ति भी हो गई है. रेलवे के मैकेनिकल इंजीनियर, लोहानी एक सक्षम अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं. एअर इंडिया को भले ही उनके समय में निजी हाथों में सोंपने का निर्णय हुआ हो, लेकिन उनकी क्षमताओं और नेतृत्व पर सबको यकीन है. रेलवे के अलावा भी केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार में उन्होंने नाम कमाया है. उनके सामने मौका है पूरी ताकत झोंकने का. पिछले तीन सालों में दर्जनों समितियां गठित हुई हैं, जिनमें प्रमुख हैं- परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर समिति, बिबेक देबराय, विनोद राय, श्रीधरन और उससे पहले राकेश मोहन आदि. संरक्षा क्षेत्र में भी दर्जनों रिपोर्ट धूल खा रही हैं. वक्त आ गया है इन पर कार्रवाई का और उम्मीद है जिस केबिनेट ने उन्हें नीचे से लाकर सबसे ऊपर अध्यक्ष पद पर बिठाया है, उनका बरदहस्त भी इनका साथ देगा.
एक साथ कई मोर्चों पर पहल की जरूरत है, जिसमें सबसे पहले कार्य सिद्धांत को बदलने की. यह शर्म की बात है कि रेलवे की नब्बे प्रतिशत दुर्घटनाओं का कारण मानवीय भूल, लापरवाही है. सभी स्तरों पर भर्ती, प्रशिक्षण को दुरुस्त करने की जरूरत है. साथ ही दंड और पुरस्कार भी. मशहूर कहावत है ‘युद्ध बंदूकों से नहीं, उन कंधों से जीते जाते हैं जो उन्हें चलाते हैं.’ अभी से नई तकनीक को हमारा निकम्मापन फेल कर देता है. बिना किसी राजनैतिक, जातीय, क्षेत्रीय हस्तक्षेप की परवाह किए बड़े अफसरों को भी तुरंत अपने सामंती, अंग्रेजों जैसे व्यवहार को बदलने की जरूरत है. अनावश्यक फूल-मालाओं, स्वागत, प्रोटोकॉल पर तुरंत रोक लगे. सरकारी नौकरियां में किसी प्रकार की अय्यासी या जमीदारी की कोई जगह नहीं है. कब तक रेल मंत्रालय सामाजिक न्याय, कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर सिर्फ नौकरी देने के उपक्रम बने रहेंगे?
एक तरफ प्रतिवर्ष लगभग पांच सौ गैंगमैनों की दुर्घटनाओं में मौत, तो दूसरी ओर सुस्ती और काहिली की अनगिनत दास्ताने. प्रशासनिक सुधार आयोग और वेतन आयोग ने भी अपनी कई सिफारिशें रेल के बाहर की प्रतिभाओं को मौका देने की बाबत की हैं. सुधार की उम्मीद में इन्हें आजमाने में क्या हर्ज है? अनुशासन, परियोजनाओं को पूरा करने और कार्य संस्कृति के मामले में दिल्ली मैट्रो और श्रीधरन से भी सीखा जा सकता है. क्या निजी क्षेत्र, बैंक और दूसरे विभाग नहीं सीख रहे हैं? सबसे सुस्त लापरवाह सरकारी विभाग ही क्यों है रेलवे? तकनीक और आर्थिक पक्ष से भी ज्यादा जरुरी है तेरह लाख कर्मचारियों की कार्य-संस्कृति में बदलाव- नई आकांक्षाओं, उद्देश्यों के अनुरूप.
निश्चित रूप से हाल की दुर्घटनाओं के मद्देनजर रेलमंत्री सुरेश प्रभु की जिम्मेदारी सबसे ऊपर है. उन्होंने नैतिकता के नाते इस्तीफा देने की पेशकश भी की है. लगभग तीन साल के अपने कार्यकाल में उनकी ईमानदारी पर पर कोई उंगली नहीं उठी. नई पीढ़ी के प्रबंधकीय गुण, सादगी, सीखने की क्षमता, नम्रता भी उनमें है. रेलवे में नई तकनीकों को यथासंभव लाने के प्रयास भी उन्होंने किए हैं. वर्ष 2017-18 के बजट में एक लाख करोड़ का सेफ्टी फंड निश्चित कर संरक्षा की तरफ एक बड़ी शुरुआत होने वाली है. मानवरहित क्रासिंग का साठ प्रतिशत काम पूरा हो चुका है. काकोडकर समिति की सिफारिशों में से 65 मान ली गई हैं. खानपान, ट्रैक, स्टेशन प्रबंधन इत्यादि कई मोर्चों पर काम शुरू हो चुका है.
तथापि, इतना पर्याप्त नहीं है, बल्कि देश की उम्मीदों से बहुत कम है, यह सब. रेल ट्वीटर से नहीं चलाई जा सकती. व्यवस्थागत परिवर्तन की जरूरत है. रेल मंत्रालय बार बार राजनैतिक स्वार्थों, संतुलनों के लिए बलि का बकरा बनता रहा है. अंग्रेजों की इतनी बड़ी विरासत बरबाद भी इसीलिए हो रही है. निश्चित रूप से इन गलतियों से सीखे सबकों के कार्यान्वयन का वक्त आ गया है. नए अध्यक्ष की नियुक्ति उसी का पहला प्रभावी कदम है. रेल का इतिहास ऐसे मंत्रियों से भरा पड़ा है जो अपनी-अपने क्षेत्र, सूबे से आगे कभी सोच ही नहीं पाए, और कायर, चापलूस नौकरशाही ने इसे कभी रोकने की हिम्मत भी नहीं की. नतीजा रेल की यह दुगर्ति.
दशकों की हर स्तर पर की गई कोताही का परिणाम है रेल की यह दुगर्ति. सुरेश प्रभु एक मंत्री के रूप में वैसे दबंग नहीं साबित हुए जिसकी जरूरत थी. टेंडरिंग से लेकर सारी शक्तियां उन्होंने साथी छोटे मंत्रियों, अफसरों को इस उम्मीद में सौंपी जिससे किसी काम में विलंब न हो, निर्णय के स्तर कम से कम हो; पर इसके परिणाम अभी तक तो अनुकूल नहीं आए. लेकिन क्या वह इसके लिए पूरा प्रशासनिक तंत्र ज्यादा जिम्मेदार नहीं है जो हर सही सुझाव, सिफारिश के खिलाफ विभागीय मोर्चेबंदी किए रहता है? और यूनियनें भी, जो बात-बात पर रेल रोकने की धमकी देती हैं? सुरेश प्रभु अब तक इन सबकी चालों को समझ गए होंगे.
यदि रेलवे को टेलीफोन, शिक्षा, स्वास्थ्य और एअर इंडिया की तरह निजी हाथों में जाने से रोकना है, तो यह शायद अंतिम मौका है. कायाकल्प के कई मोर्चे हैं- रेल की पटरियों को बदलना, उनका रख-रखाव, जर्जर पुलों की मरम्मत, सिग्नल प्रणाली, दुर्घटना रोधी नए डिब्बे. यात्री सुरक्षा भी चाहिए और समयपालन भी. इतनी बड़ी आबादी और माल का बोझ. रियायतें भी सभी को चाहिए- बुजर्ग, अपाहिज, कैंसर और अन्य रोगी, खिलाड़ी, सैनिक. कल्पना कर सकते हैं इतनी बड़ी गठरी को साधना और लेकर चलना. वाकई कायाकल्प की जरुरत है.