- रेलवे अस्पताल में स्टाफ बेनिफिट फंड के 15 लाख में मेडिकल पर फूटी कौड़ी भी नहीं हुई खर्च
- न बनी कमेटी, न लिया जरूरत का सुझाव, चिकित्सा प्रभारी ने अपनी मर्जी से कर ली खरीदारी
- अस्पताल में सामानों की खरीद में भी बड़े पैमाने पर अनियमितता, महंगे दर पर की गयी खरीद
डॉ अनिल कुमार. रेलवे द्वारा कर्मचारियों के कल्याणार्थ हर वित्तीय वर्ष में स्टॉफ बेनिफिट फंड के नाम से विभागवार अलग-अलग राशि का आवंटन किया जाता है. इस राशि को जरूरत का आंकलन कर एक कमेटी योजनाबद्ध तरीके से खर्च कराने का दायित्व निभाती है. लेकिन चक्रधरपुर रेलमंडल के अंतर्गत आने वाले टाटानगर रेलवे अस्पताल में स्टॉफ बेनिफिट फंड (कर्मचारी कल्याण कोष) में आये करीब 15 लाख रुपये का मनमर्जी तरीके से एक डॉक्टर विशेष द्वारा कर दिये जाने का मामला सामने आया है.
इसका चौकाऊ पक्ष यह है कि वित्तीय वर्ष के दौरान मिले लगभग 15 लाख रुपये में वैसे सामान की खरीददारी कर ली गयी जिनका कर्मचारी कल्याण से कोई लेना-देना ही नहीं. अस्पताल में जरूरत थी चिकित्सकीय उपकरणों की तो लगा दिये गये सीसीटीवी कैमरे. ऑपरेशन थियेटर को अपडेट करने की जगह कुर्सी-टेबुल व पेपर स्टैंड पर पैसा झोंक देने का काम किया गया. इसी तरह हृदय, किडनी समेत अन्य बीमारियों के इलाज के लिए उपकरण व दवा की जगह वैसी वस्तुओं को खरीद लिया गया जिनके लिए पहले से ही अलग से बजटीय प्रावधान किया गया होता है.
जानकार सूत्रों का कहना है कि कर्मचारी कल्याण मद में मिलने वाली रकम का इस्तेमाल एक तीन सदस्यीय स्टैंडिंग कमेटी के जिम्मे होता है जिसमें रेलवे अस्पताल के डॉक्टर के अलावा वित्तीय मामले देखने वाले और पर्सनल विभाग से जुड़े अधिकारी शामिल होते है. लेकिन टाटानगर रेलवे अस्पताल के संदर्भ में यह तथ्य सामने आया है कि लगभग 15 लाख की रकम आने के बाद न तो इस कमेटी का गठन किया गया और न ही कर्मचारी यूनियनों या विभागीय स्तर पर अस्पताल में जरूरत के सामानों की खरीद के लिए कोई जानकारी ली गयी.
अस्पताल के प्रभारी डॉ एसके बेहरा की ओर से अपने मन के मुताबिक पूरी रकम खर्च दी गयी और वैसे सामान खरीद लिये गये जिनका कर्मचारी के कल्याण से सीधा वास्ता नहीं है. जानकार सूत्रों का कहना है कि इस मद में खरीदे गये सामान मसलन कुर्सी-टेबुल, ऑडियो-वीडियो स्पीकर सिस्टम, सीसीटीवी, वाटर प्यूफायर के लिए अलग से बजटीय प्रावधान रेलवे की ओर से किया गया होता है. ऐसी स्थिति कर्मचारी कल्याण मद की रकम से इन सामानों की खरीदारी क्यों और कैसे कर दी गयी यह बड़ा प्रश्न बना हुआ है. यह भी पता चला है कि जिन सामानों की खरीद अस्पताल के लिए बेनिफिट फंड से की गयी है वह वास्तविक बाजार मूल्य से काफी ऊंची कीमत पर ली गयी है. अगर इसकी जांच हो तो बड़ा गोलमाल व भ्रष्टाचार सामने आयेगा.
जब रेलहंट डॉट कॉम को इस गड़बड़झाले की जानकारी मिली तो रेलवे न्यूज की इस एक्सक्लूसिव पोर्टल की ओर से विभिन्न माध्यमों से छानबीन की गयी. लेखा विभाग से लेकर पसर्नल विभाग तक के अफसरों ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि उन्हें किसी कमेटी में नामित नहीं किया गया था लिहाजा वे रकम मिलने और इसके इस्तेमाल को लेकर पूरी तरह अनभिज्ञ है. यह भी बताया गया कि इस बारे में जो भी जानकारी मिल सकती है वह रकम खर्च करने वाले टाटानगर रेलवे अस्पताल के एसीएमओ डॉ एसके बेहरा ही दे सकते हैं.
रेलहंट डॉट कॉम ने जब संबंधित डॉक्टर से संपर्क करना चाहा तो पता चला कि अब वे टाटानगर रेलवे अस्पताल में कार्यरत नहीं है और उनका तबादला खड़गपुर में पदोन्नति के बाद हो चुका है. कर्मचारी कल्याण मद में मिली रकम को अपने मनमर्जी तरीके से खर्च करने के बाद संबंधित डॉ़क्टर का तबादला टाटानगर रेलवे अस्पताल से हुआ है. उधर, अब रेलवे कर्मचारी और उनकी यूनियनों में इस गड़बड़झाले की सुगबुगी सुनी जाने लगी है. ऐसे संकेत है कि आने वाले दिनों में इस रकम को खर्च करने की मामले की जांच की मांग उठ सकती है और इस मामले में रेलवे विजिलेंस से भी संपर्क साधा जा सकता है. रेलवे अस्पताल की व्यवस्था पर जब रेलहंट की ओर से कुछ रेलकर्मियों से बात की गयी तो पता चला कि रेलवे अस्पताल में अब तक खर्च का वास्तविक ऑडिट कर दिया जाये तो करोड़ों का गोलमाल सामने आ सकता है.
… काश, कल्याण मद की राशि इन पर कर दी गयी होती खर्च
यदि रेलवे में कायम व्यवस्था को अंगीकार कर स्टैंडिंग कमेटी बना दी गयी होती और मनमर्जी तरीके से रकम खर्च करने का रास्ता नहीं अपनाया गया होता तो रेलवे अस्पताल की कई ऐसी मशीनें या उपकरण दुरुस्त कराये जा सकते थे जो कर्मचारियों के इलाज में रोजमर्रा इस्तेमाल किये जाते है. सूत्रों का कहना है कि अस्पताल में ऑटो एनेलाइजर नहीं होने के कारण रेलकर्मियों को सामान्य जांच के लिए बाहर भेजा जाता है. अगर मात्र 1.20 लाख से यहां ऑटो एनेलाइजर मशीन आ जाती तो रेलकर्मियों को जांच लिए बाहर नहीं जाना पड़ता और रेलवे के पैसे की भी बचत होती. ओटी की लाइट 1.30 लाख में आती है लेकिन उसकी खरीद नहीं की गयी. इस कारण यहां सामान्य ओटी भी कोई कार्य संभव नहीं हो पाते. अस्पताल के लिए माइक्रोस्कोप की नितांत जरूरत हे जो मात्र 30 हजार में उसकी खरीद होती तो कई कार्य अस्पताल में ही संभव हो जाते. अस्पताल में कर्मचारियों का ही कहना है मात्र 20 हजार से एक्स-रे मशीन को मरम्मत कर बेहतर आउटपुट लिया जा सकता है, लेकिन उसका उपयोग नहीं हो पा रहा. अक्सर लोगों को आपात जरूरत में एक्स-रे के लिए सदर अस्पताल जाकर स्वयं के पैसे से एक्स-रे करना पड़ता है.
खरीदने के बाद कभी नहीं चला अल्ट्रासाउंट, रेलवे के लाखों डूबाये
अस्पताल की जर्जरहाल व्यवस्था का एक पहलू यह भी है कि यहां लाखों रुपये खर्च कर जिस उपकरण को खरीदा गया उसे कुछ लोगों ने जान-बूझकर उपयोगी नहीं होने दिया और वह लाखों के उपकरण रखे-रखे बेकार हो गये. यह जांच का विषय है कि लाखों रुपये खर्च कर अस्पताल में लायी गयी अल्ट्रासाउंड मशीन का उपयोग क्यों नहीं किया गया? जबकि इसी मशीन पर काम करने के लिए एक डॉक्टर को विशेष तौर पर टाटा मोटर्स अस्पताल में रेलवे की राशि खर्च कर ट्रेनिंग करायी गयी थी, बावजूद रेलवे अस्पताल में उस अल्ट्रासाउंड मशीन का उपयोग नहीं किया जाता है. जानकार सूत्रों का कहना है कि अल्प राशि में इस मशीन की मरम्मत कर उसे उपयोगी बनाया जा सकता था लेकिन ऐसा नही किया गया. वर्तमान में लोगों को बाहर से अल्ट्रासाउंड करना होता है और इसमें रेलवे को पैसा लगता है. ऐसे में सीधे तौर पर रेलवे के लाख्रों रुपये डूबाने वाले जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई अब तक क्यों नहीं की गयी यह भी अपने आप में जांच का विषय है.
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