- रेलवे का मुनाफा टिकट परीक्षक, दलाल, ठेकेदार, भ्रष्ट रेलकर्मी और बड़े अधिकारियों व राजनीतिज्ञों की जेब में जा रहा है
रेलहंट ब्यूरो, नई दिल्ली
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश बजट में वैसे तो कई सारे आर्थिक विजन प्रस्तुत किए गए हैं, परंतु इन सबमें भारतीय रेलवे में निजी क्षेत्र के आमंत्रण का जो उल्लेख है, वह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी परिघटना है. दरअसल भारतीय रेल के इतिहास में निजी क्षेत्र की एक बड़ी भूमिका की पहली बार कोई रूप रेखा प्रस्तुत की गई है. रेलवे की मौजूदा स्थिति में इस पहल की जो सबसे महत्वपूर्ण वजह है, वह है भारतीय रेलवे में अगले एक दशक के दौरान करीब 50 लाख करोड़ रुपये के निवेश की दरकार. यह विशाल निवेश राशि अकेले सरकार के बूते की बात नहीं, लिहाजा निजी क्षेत्र को भी इसमें भागीदारी का न्योता दिया गया है.
हालांकि कई लोगों को ऐसा लगता है कि निजी क्षेत्र के आने के बाद भारतीय रेलवे, जो विशाल भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अपना सरीखा परिवहन माध्यम है, वह नहीं रहेगा और महंगा हो जाएगा. दरअसल भारतीय रेलवे को किसी भावुकता भरी नजरों से सरकारी सामाजिक उपक्रम के रूप में देखकर हम इसकी मौजूदा स्थिति को नहीं समझ पाएंगे. ऐसा नहीं है कि भारतीय रेलवे सरकारी स्वामित्व में चलकर भारत के करोड़ों लोगों को केवल गुदगुदाता ही हो, यह उतना ही रुलाता भी है. इसमें लंबी दूरी की यात्रा हो या कम दूरी की, बहुत ही बुरे हालात में लोग यात्रा करते हैं.
भारतीय रेलवे की सभी विशिष्टताओं को बरकरार रखते हुए तथा इसमें मौजूद अक्षमताओं, कमियों व लीकेज को दूर करने हेतु हमें निजीकरण का एक सक्षम मॉड्यूल बनाना होगा. इस निजीकरण मॉड्यलू की पूरी मैकेनिज्म निर्धारित होने के उपरांत ही इसमें निवेशजनित निजीकरण को अमली जामा पहनाने का काम तय हो पाएगा. हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भारतीय रेलवे का नेटवर्क आजादी के समय करीब 50,000 किलोमीटर था, जो पिछले सात दशकों में बढ़कर केवल 65,000 किलोमीटर हो पाया है, जबकि यात्रियों की संख्या में कई गुना बढ़ोतरी हो चुकी है. हमें इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि भारतीय रेलवे को यात्री टिकट से उसकी पूरी आमदनी में केवल एक तिहाई का योगदान ही हो पाता है, जबकि उसके कुल खर्चे का दो तिहाई यात्रियों की आवाजाही पर होता है.
ट्रेन के संचालन की जिम्मेदारी बिजली वितरण के क्षेत्र में कार्यरत निजी उपक्रमों के तर्ज पर दी जा सकती है. परंतु किराया, जुर्माना और सुविधा समेत रोजगार सृजन का निर्धारण सरकारी नियमन प्राधिकरण के तहत होना चाहिए. जब एक अच्छे रेलवे स्टेशन बनाने की लागत एक शॉपिंग मॉल के ही बराबर है तो फिर एक शॉपिंग मॉल के तर्ज पर एक स्टेशन से भी राजस्व क्यों नहीं अर्जित किया जा सकता है.
दूसरी तरफ माल परिवहन रेलवे की आमदनी में दो तिहाई का अंशदान करता है, और खर्चे का केवल एक तिहाई उपयोग करता है. जाहिर है रेलवे का यात्री गाड़ियों का संचालन पूरी तरह से क्रॉस सब्सिडी के जरिये होता है. रेलवे के पास करीब छह हजार स्टेशन, देश का दूसरा सबसे बड़ा भूमि बैंक, करीब 15 लाख लोगों का कार्यबल, लगभग एक करोड़ लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार देने का गौरव तथा भारत की समूची अर्थव्यवस्था की लाइफ लाइन होने का श्रेय हासिल है, फिर भी इसका कुल कारोबार महज डेढ़ लाख करोड़ रुपये का ही है. इससे ज्यादा कारोबार तो एक पेट्रोलियम सार्वजनिक उपक्रम कर लेता है, जबकि खुद रेलवे के पास एक दर्जन अपने सार्वजनिक उपक्रम हैं.
कहीं न कहीं हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भारतीय रेलवे का मुनाफा टिकट परीक्षक, दलाल, ठेकेदार, भ्रष्ट रेलकर्मी और बड़े अधिकारियों समेत अनेक राजनीतिज्ञों की जेब में जा रहा है. इसीलिए यह सोचने की नौबत आ गई है कि भारतीय रेलवे को एक मामूली मुनाफा कमाने के लिए भी संघर्ष क्यों करना पड़ता है? जाहिर है कि एकाधिकार की स्थिति चाहे सरकारी स्वामित्व में हो या निजी स्वामित्व में, उसकी अपनी विरूपताएं होती ही हैं. पिछले सात दशकों के दौरान रेलवे में बहुस्तरीय संरचनात्मक परिवर्तन का एक व्यापक विजन आया ही नहीं. इसलिए भी आज भारतीय रेलवे में व्यापक बदलाव की जरूरत है, क्योंकि देश के अधिकांश हिस्सों में लोकल ट्रेनों में न तो टिकट चेकिंग होती है और न ही टिकट आसानी से मिल पाते हैं. ऐसे में भारतीय रेलवे का राजस्व मारा जाता है.
यदि सरकार वेंडिंग मशीन के जरिये राजस्व कमाने में अक्षम है तो निजी क्षेत्र को इसमें शामिल करे. निजीकरण तब तक खराब नहीं है जब तक यात्रियों पर अनाप-शनाप बोझ न डाला जाए. रेलगाड़ियों की पर्याप्त संख्या उपलब्ध हो, ऑन डिमांड टिकट हमेशा उपलब्ध हो, पार्सल बुकिंग सरल तरीके से हो जाए.
यदि सरकार वेंडिंग मशीन के जरिये राजस्व कमाने में अक्षम है तो निजी क्षेत्र को इसमें शामिल करे. निजीकरण तब तक खराब नहीं है जब तक यात्रियों पर अनाप-शनाप बोझ न डाला जाए. रेलगाड़ियों की पर्याप्त संख्या उपलब्ध हो, ऑन डिमांड टिकट हमेशा उपलब्ध हो, पार्सल बुकिंग सरल तरीके से हो जाए. हालांकि पिछले चार सालों में मोदी सरकार के दौरान रेलवे में सालाना पूंजीगत निवेश में काफी वृद्धि हुई है. पिछले पांच साल में रेलवे में पूंजीगत निवेश में करीब छह गुना बढ़ोतरी हुई. रेलवे का विद्युतीकरण बढ़ा है, ट्रैक का नवीनीकरण बढ़ा है. परंतु अभी भी भारतीय रेलवे में तमाम विसंगतियां हैं. कई जगहों पर पर्याप्त किराया नहीं लिया जाता है जबकि कई जगह यात्रियों को हजारों रुपये का जुर्माना देना पड़ता है. यदि इन तमाम कार्यों के निष्पादन में निजी क्षेत्र को न्यौता दिया जाता है, तो इसमें कोई परेशानी नहीं, बशर्ते निजीकरण का एक ऐसा मल्टी मॉडल गठित हो जिसमें कई चीजों को समाहित किया गया हो. मसलन इसमें निजी और सार्वजनिक भागीदारी भी हो तथा आपसी प्रतियोगिता भी हो. टेलीकॉम की तरह इसमें बहुस्तरीय नियमन प्राधिकरण का गठन हो. निजी क्षेत्र के लिए खुले चरने के लिए इसमें मलाइदार क्षेत्र का आबंटन नहीं, बल्कि सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य के तहत प्रशुल्क और मुनाफा कमाने की बंदिशें हों.
आज वाकई रेलवे में सबसे ज्यादा निवेश की आवश्यकता है, क्योंकि बड़ी संख्या में देश भर में नए रेलवे ट्रैक बिछाने की जरूरत है. यदि नए नियमन प्राधिकरण के तहत निजी क्षेत्र इसमें निवेश करते हैं तो उन्हें भविष्य में निवेश के हिसाब से राजस्व की हिस्सेदारी देने में किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए. ट्रेन के संचालन की जिम्मेदारी बिजली वितरण के क्षेत्र में कार्यरत निजी उपक्रमों के तर्ज पर दी जा सकती है. परंतु किराया, जुर्माना और सुविधा समेत रोजगार सृजन का निर्धारण सरकारी नियमन प्राधिकरण के तहत होना चाहिए. जब एक अच्छे रेलवे स्टेशन बनाने की लागत एक शॉपिंग मॉल के ही बराबर है तो फिर एक शॉपिंग मॉल के तर्ज पर एक स्टेशन से भी राजस्व क्यों नहीं अर्जित किया जा सकता है. आज का आर्थिक दौर नियमन प्राधिकरण का है. सरकारी एकाधिकार व निजी एकाधिकार दोनों उपभोक्ताओं का शोषण करते हैं. आखिर भारतीय रेलवे की प्रीमियम ट्रेन का कॉन्सेप्ट क्या है? वह भी निजी क्षेत्र की तरह लूट का एक सरकारी नमूना है.
मनोहर मनोज, वरिष्ठ पत्रकार है, उनका यह आलेख जागरण में प्रकाशित हुआ है.