तारकेश कुमार ओझा
कितने लोग होंगे जो छोटे शहर से राजधानी के बीच ट्रेन से डेली – पैसेंजरी करते हैं ? रेलगाडियों में हॉकरी करने वालों की सटीक संख्या कितनी होगी ? आस – पास प्राइवेट नौकरी करने वाले उन लोगों का आंकड़ा क्या है , जो अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह से रेलवे पर निर्भर हैं ? निश्चित रूप से इन सवालों के सटीक जवाब शायद ही किसी के पास हो . लेकिन इन सवालों का संबंध समाज के जिस सबसे निचले पायदान पर खड़े वर्ग से है , कोरोना काल में उसकी मुश्किलों को बढ़ाने वाले सवाल लगातार बढ़ रहे हैं .
कोरोना के खतरे , लॉक डाउन , अन लॉक और सोशल डिस्टेसिंग के अपने तकाजे हो सकते हैं , लेकिन लगातार जाम होते ट्रेनों के पहियों का मसला केवल इस वर्ग की पेट से ही नहीं जुड़ा है . जीवन के कई अहम फैसले और ढेरों कसमें – वादे भी इनकी जिंदगी की पटरी पर स्तब्ध खड़े रह कर सिग्नल हरी होने का इंतजार कर रहे हैं . किसी को लगातार टल रही भांजी की शादी की चिंता है तो कोई बीमार चाचा के स्वास्थ्य को लेकर परेशान है . दुनिया की तमाम दलीलें और किंतु – परंतु उनकी चाह और चिंता के सामने बेकार है , क्योंकि अनिश्चितता की अंधेरी सुरंग में बंद उनकी बदकिस्मती के ताले की चाबी सिर्फ और सिर्फ रेलवे के पास है .
एकमात्र ट्रेनों की गड़गडा़हट ही इस वर्ग की वीरान होती जिंदगी में हलचल पैदा कर सकती है . रेलगाड़ियां आम भारतीय की जिंदगी से किस गहरे तक जुड़ी है , इसका अहसास आज मुझे रेलवे स्टेशन के पास स्थित चाय की गुमटी पर लगातार मोबाइल पर बतिया रहे नवयुवक की लंबी बातचीत से हुआ . युवक अपने किसी रिश्तेदार से अपना दर्द बयां कर रहा थ़ा ….कुछ ट्रेनें चली है ….लेकिन उसमें नीलांचल शामिल नहीं है …..इसके शुरू होते ही गांव आऊंगा ….लड़की देख कर रखना …. इस बार रिश्ता पक्का करके ही लौटूंगा …. !!
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं
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