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खुला मंच/विचार

बर्फीली रात , अयोध्या के पास !!

खड़गपुर. अदालती फैसले के बहाने 6 दिसंबर 1992 की चर्चा छिड़ी तो दिमाग में 28 साल पहले का वो वाकया किसी फिल्म की तरह घूम गया. क्योंकि उन बर्फीले दिनों में परिवार में हुए गौना समारोह के चलते मैं अयोध्या के पास ही था. परिजन पहले ही गांव पहुंच चुके थे. तब मैं घाटशिला कॉलेज का छात्र था. घर में गायें थी और दूध का छोटा-मोटा कारोबार था. आत्मनिर्भर बनने के इरादे से मैने कुछ समाचार पत्रों की एजेंसी भी ले रखी थी. दोनों कारोबार कुछ नजदीकी लोगों के भरोसे छोड़ मैं दिसंबर के प्रथम दिनों में अपने गृह जनपद प्रतापगढ़ को रवाना हुआ.

तब के अखबार कारसेवकों की गिरफ्तारी की खबरों से रंगे रहते थे. पुरी नई दिल्ली नीलांचल एक्सप्रेस से मैं इलाहाबाद पहुंचा. स्टेशन उतर कर बस पकड़ने सिविल लाइंस जाने के दौरान बसों में भरे कारसेवकों का जयश्री राम का उद्घोष सुनता रहा. हालांकि इतनी बड़ी अनहोनी की मुझे बिल्कुल भी आशंका नहीं थी. पारिवारिक कार्यक्रम से निवृत्त होने के बाद मैं वापसी की योजना बनाने लगा. छह दिसंबर १९९२ के उस ऐतिहासिक दिन मैं अपने एक रिश्तेदार के श्राद्ध कार्यक्रम में शामिल होने दूसरे गांव गया था. कड़ाके की ठंड में शाम होते-होते हर तरफ घुप अंधेरा छा गया. तभी किसी ने अयोध्या में कारसेवा का जिक्र किया.

ताजा हाल जानने के लिए रेडियो लगाया गया तो अपडेट जानकारी सब के होश उड़ा चुके थे. देश-प्रदेश में कर्फ्यू ग्रस्त जिलों की संख्या लगातार बढ़ रही थी. स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए परिवार के लोग तत्काल जीप से गांव को रवाना हुए , जबकि मेरे चचेरे और फुफेरे भाई स्कूटर से रास्ते में सांय-सांय करती सड़क से होते हुए हम घर पहुंचे. स्कूटर सवार भाईयों को लौटने में देर हुई तो हम बेचैन हो उठे. कुछ देर बाद दोनों लौट आए. दो दिन दहशत में बीते. लेकिन घर-कारोबार का हवाला देकर मैने दहशत भरे माहौल में भी अपने शहर खड़गपुर लौटने का फैसला किया .

हालांकि घर के लोग इसके लिए कतई राजी नहीं थे. नीलांचल एक्सप्रेस पकड़ने के इरादे से मैं बस से इलाहाबाद रवाना हुआ. परिजनों के आग्रह के बावजूद मैने कंबल या कोई गर्म कपड़ा लेने से यह कह कर इन्कार कर दिया कि सुबह तो शहर पहुंच ही जाऊंगा. इलाहाबाद स्टेशन पर पूछताछ कार्यालय पहुंचा तो रद ट्रेनों की लिस्ट में नीलांचल एक्स्प्रेस भी शामिल देख मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई. तब न तो संचार सुविधा थी न मोबाइल. स्थिति इसलिए भी भयानक थी क्योंकि हिंसा की चपेट में ट्रेनें और रेलवे स्टेशन भी आ रही थी और नीलांचल एक्सप्रेस सप्ताह में तीन दिन ही चलती थी.

पढ़ाई के सिलसिले में टाटानगर आने जाने के चलते मुझे इतना पता था कि एक ट्रेन टाटा-पठानकोट एक्स्प्रेस इलाहाबाद के रास्ते टाटानगर जाती है. मैने यही ट्रेन पकड़ने का फैसला किया. कई घंटे लेट से देर रात यह ट्रेन इलाहाबाद पहुंची. हड्डी गला देने वाली ठंड में ट्रेन के एक-एक डिब्बे में मुश्किल से तीन-चार मुसाफ़िर बैठे मिले. ट्रेन चली तो ऐसी सर्द हवाएं चलने लगी कि मुझे लगा अकड़ जाऊंगा. रात बीती सुबह हुई और फिर शाम …लेकिन ट्रेन थी कि उत्तर प्रदेश के सोनभद्र और झारखंड के घने जंगलों के रास्ते बस चलती ही जा रही थी. भूखे प्यासे अंतहीन सफर की मजबूरी के बीच घर-परिवार को याद कर मैं लगभग रूआंसा हो गया.

पूरे 26 घंटे बाद देर रात मैं टाटानगर पहुंचा और फिर हटिया-हावड़ा एक्स्प्रेस पकड़ कर तड़के खड़गपुर. शहर में तब आटो या टोटो नहीं चलते थे और कहीं आने जाने का एकमात्र साधन रिक्शा था. घर जाने के लिए मैने स्टेशन के दोनों तरफ रिक्शे की तलाश की. लेकिन हर तरफ फैला सन्नाटा बता रहा था कि शहर के हालात भी ठीक नहीं है.

लेखक तारकेश कुमार ओझा, खड़गपुर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. 

 

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