भारतीय रेलवे मजदूर संघ के स्थापना से पहले अर्थात 1965 से पहले रेलवे कर्मचारियों को बोनस की कल्पना ही नहीं थी. जुलाई 1960 की रेलवे हड़ताल के मांग पत्र में बोनस की मांग का ना होना, इसका प्रमाण है. भारतीय रेलवे मजदूर संघ के स्थापना अधिवेशन दिनांक 26 -27 मई 1966 में जब प्रस्ताव में अन्य मौलिक मांगों के साथ रेल कर्मचारियों को बोनस की मांग को प्रमुख रूप से प्रस्ताव पारित किया तो रेलवे शासन-प्रशासन के साथ साथ AIRF के नेताओं ने इस मांग को मूर्खता पूर्ण व असंभव बताया और व्यंग्य करते हुए कहा कि “नया मुल्ला ज्यादा प्याज़ खाता है”.
किन्तु भारतीय रेलवे मजदूर संघ अपनी इस मांग पर डटा रहा और संघर्ष व आंदोलन करता रहा. जो लोग बोनस को लाभ का एक भाग मानते थे, उनको समझाता रहा कि उधोग सरकारी हो या निजी जब तक कर्मचारियों को जीवन यापन आधारित वेतन नहीं दिया जाता, तब तक बोनस विलंबित वेतन के रूप में मिलना ही चाहिए. बोनस की इस परिभाषा को बोनस कमीशन, औधोगिक न्यायालयों और बहुत से उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों ने भी स्वीकार किया और अंत में सरकार ने भी बोनस अधिनियम 1965 में इस सिद्धांत को अंगीकार किया. फलस्वरूप सरकारी क्षेत्र को छोड़कर सभी निजी और निगमीकृत उद्योगों में न्यूनतम बोनस का भुगतान अनिवार्य कर दिया.
भारतीय रेलवे मजदूर संघ के आग्रह पर रेलवे पर मौजूद सभी संगठनों को एकजुट होकर संघर्ष की तैयारी हेतु दिल्ली में 10 नवम्बर 1979 BRMS – AIRF – NFIR – AIREC की केंद्रीय कार्यसमितियों की बैठकें आयोजित हुई. इसमें भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने प्रस्ताव रखा कि, यदि सरकार रेलवे कर्मचारियों को बोनस की मांग को ठुकराती है तो, आम चुनाव के दौरान ही रेलवे पर हड़ताल की जाये.
बोनस संबंधी भारतीय रेलवे मजदूर संघ की यह पहली विजय थी, जिसमें भारतीय रेलवे मजदूर संघ के बोनस सिद्धांत व परिभाषा को मान्यता मिली. इसी सिद्धांत को लेकर भारतीय रेलवे मजदूर संघ सम्पूर्ण रेलवे पर बोनस की मांग को बार-बार दोहराता रहा और आंदोलन करता रहा. रेलवे पर चल रहे अन्य मजदूर संगठनों की ओर से पहली बार सन् 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल के मांग पत्र में भारतीय रेलवे मजदूर संघ के आग्रह पर वेतन समानता के साथ-साथ बोनस की मांग को भी प्रमुख स्थान दिया गया. सन् 1977 में देश में पहली बार कांग्रेस को पराजित कर जब जनता बनी तब भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने अपनी बोनस की मांग को पुनः जोरदार तरीके से उठाया और जनता सरकार में बैठे वे मंत्री जो 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल का नेतृत्व किया था, उन्हें उस हड़ताल के मांग पत्र में उल्लेखित बोनस की मांग की याद दिलाने आंदोलन प्रारंभ किया. जनता सरकार ने भी कांग्रेस की नीति के अनुसार रेल कर्मचारियों को बोनस देने से इन्कार कर रही थी.
सन् 1979 उत्तरार्ध में जनता सरकार अपने अंतर्कलह के कारण लडखड़ा गई और मोरारजी देसाई के स्थान पर चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने, जिनमें संसद में विश्वास मत प्राप्त करना तो दूर संसद सत्र बुलाने की सामर्थ्य नहीं थी. अतः उन्होंने घबराहट में आम चुनाव कराने की तैयारी प्रारंभ कर दी. तब भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने चुनाव के बाद कोई मज़बूत सरकार बनने से पहले ही रेलवे कर्मचारियों के लिए बोनस प्राप्त कर लेने का अपना संकल्प दोहराया. तदनुसार 16 सितम्बर से 30 सितम्बर 1979 तक संपूर्ण रेलवे पर “बोनस पखवाडा ” मनाया और 1 अक्तूबर से 15 अक्तूबर 1979 तक हड़ताल के लिए मतदान करवाया.
प्रधानमंत्री रहते चरण सिंह ने 13 नवम्बर 1979 को उत्पादकता पर आधारित बोनस देना स्वीकार किया. यह भारतीय रेलवे मजदूर संघ की बोनस संबंधी सबसे बड़ी विजय है क्योंकि रेलवे पर बोनस की मांग को सबसे पहले भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने उठाया और उसे प्राप्त करने के लिए निर्णायक संघर्ष भी उसी ने किया.
भारतीय रेलवे मजदूर संघ के आग्रह पर रेलवे पर मौजूद सभी संगठनों को एकजुट होकर संघर्ष की तैयारी हेतु दिल्ली में 10 नवम्बर 1979 BRMS – AIRF – NFIR – AIREC की केंद्रीय कार्यसमितियों की बैठकें आयोजित हुई. इसमें भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने प्रस्ताव रखा कि, यदि सरकार रेलवे कर्मचारियों को बोनस की मांग को ठुकराती है तो, आम चुनाव के दौरान ही रेलवे पर हड़ताल की जाये. इस प्रस्ताव को सभी अस्वीकार कर दिया, अंततः भारतीय रेलवे मजदूर संघ को हड़ताल का एक तरफा निर्णय लेना पड़ा और घोषित करना पड़ा कि यदि रेलवे कर्मचारियों को बोनस न मिला तो 20 दिसम्बर 1979 से रेलवे पर आम हड़ताल होगी.
भारतीय रेलवे मजदूर संघ की कार्यसमिति का यह प्रस्ताव जब चरण सिंह सरकार तक पहुंचा तो उनके पांव डगमगाने गये और अपने शासनकाल के अंतिम चरण में प्रधानमंत्री रहते 13 नवम्बर 1979 को उत्पादकता पर आधारित बोनस देना स्वीकार किया. यह भारतीय रेलवे मजदूर संघ की बोनस संबंधी सबसे बड़ी विजय है क्योंकि रेलवे पर बोनस की मांग को सबसे पहले भारतीय रेलवे मजदूर संघ ने उठाया और उसे प्राप्त करने के लिए निर्णायक संघर्ष भी उसी ने किया.
लेखक बंशी बदन झा, उत्तर मध्य रेलवे कर्मचारी संघ आगरा मंडल के मंत्री है
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