तारकेश कुमार ओझा. किसी ट्रेन की खिड़की से भला किसी शहर के पल्स को कितना देखा – समझा जा सकता है. क्या किसी शहर के जनजीवन की तासीर को समझने के लिए रेलवे ट्रेन की खिड़की से झांक लेना पर्याप्त हो सकता है. अरसे से मैं इस कश्मकश से गुजर रहा हूं. जीवन संघर्ष के चलते मुझे अधिक यात्रा का अवसर नहीं मिल पाया. लिहाजा कभी भी यात्रा का मौका मिलने पर मैं ट्रेन की खिड़की के पास बैठ कर गुजरने वाले हर गांव – कस्बे या शहर को एक नजर देखने – समझने की लगातार कोशिश करता रहा हूं. हालांकि किसी शहर की नाड़ी को समझने के लिए यह कतई पर्याप्त नहीं, यह बात मैं गहराई से महसूस करता हूं. शायद यही वजह है कि मौके होने के बावजूद मैं बंद शीशे वाले ठंडे डिब्बे में यात्रा करने से कतराता हूं और ट्रेन के स्लीपर क्लास से सफर का प्रयास करता हूं.
जिससे यात्रा के दौरान पड़ने वाले हर शहर और कस्बे की प्रकृति व विशेषताओं को महसूस कर सकूं. इस बीच ऐसी ही एक यात्रा का अवसर पाकर मैने फिर रेल की खिड़की से शहर – कस्बों को देखने – समझने की गंभीर कोशिश की और इस दौरान अनेक असाधारण अनुभव हासिल किए. दरअसल मध्य प्रदेश की स्वयंसेवी संस्था की ओर से महाराष्ट्र के वर्धा जिले के सेवाग्राम में तीन दिनों का कार्यक्रम था. वर्धा जिले के बाबत मेरे मन मस्तिष्क में बस अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की छवि ही विद्यमान थी.
वर्धा का संबंध स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से होने की संक्षिप्त जानकारी भी दिमाग में थी. कार्यक्रम को लेकर मेरा उत्साह हिलोरे मारने लगा जब मुझे पता चला कि वर्धा जाने वाली मेरी ट्रेन नागपुर होकर गुजरेगी. क्योंकि नागपुर से मेरे बचपन की कई यादें जुड़ी हुई है. बचपन में केवल एक बार मैं अपने पिता के साथ नागपुर होते हुए मुंबई तक गया था. इसके बाद फिर कभी मेरा महाराष्ट्र जाना नहीं हुआ. छात्र जीवन में एक बार बिलासपुर की बेहद संक्षिप्त यात्रा हुई तो पिछले साल भिलाई यात्रा का लाभ उठा कर दुर्ग तक जाना हुआ. लेकिन इसके बाद के डोंगरगढ़, राजानांदगांव , गोंदिया , भंडारा और नागपुर जैसे शहर अक्सर मेरी स्मृतियों में नाच उठते.
मैं सोचता कि बचपन में देखे गए वे शहर अब कैसे होंगे. लिहाजा वर्धा यात्रा का अवसर मिलते ही पुलकित मन से मैं इस मौके को लपकने की कोशिश में जुट गया. हावड़ा – मुंबई लाइन की ट्रेनों में दो महीने पहले टिकट लेने वाले यात्री अक्सर सीट कंफर्म न होने की शिकायत करते हैं. अधिकारियों की सौजन्यता से मुझे दोनों तरफ का आरक्षण मिल गया. हमारी रवानगी हावड़ा – मुंबई मेल से थी. अपेक्षा के अनुरूप ही वर्धा के बीच पड़ने वाले तमाम स्टेशनों को भारी कौतूहल से देखता – परखता अपने गंतव्य तक पहुंच गया.
वर्धा के सेवाग्राम में आयोजकों की सदाशयता तथा पूरे एक साल बाद स्वनामधन्य हस्तियों से भेंट – मुलाकात और बतकही सचमुच किसी सपने के पूरा होने जैसा सुखद प्रतीत हो रहा था . इस गर्मजोशी भरे माहौल में तीन दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. खड़गपुर की वापसी यात्रा के लिए हमारा आरक्षण मुंबई – हावड़ा गीतांजलि एक्सप्रेस में था.
ट्रेन पकड़ने के लिए मैं समय से पहले ही वर्धा स्टेशन के प्लेटफार्म संख्या एक पर बैठ गया. गीतांजलि से पहले अहमदाबाद – हावड़ा एक्सप्रेस सामने से गुजरी. जिसके जनरल डिब्बों में बाहर तक लटके यात्रियों को देख मुझे धक्का लगा. कुछ और ट्रेनों का भी यही हाल था. निर्धारित समय पर गीतांजलि एक्सप्रेस आकर खड़ी भी हो गई. लेकिन ट्रेन के डिब्बों में मौजूद बेहिसाब भीड़ देख मेरी घिग्गी बंध गई. बड़ी मुश्किल से अपनी सीट तक पहुंचा. जिस पर तमाम नौजवान जमे हुए थे. रिजर्वेशन की बात बताने पर वे सीट से हट तो गए, लेकिन समूची ट्रेन में कायम अराजकता ने सुखद यात्रा की मेरी कल्पनाओं को धूल में मिला दिया. पहले मुझे लगा कि भीड़ किसी स्थानीय कारणों से होगी जो अगले किसी स्टेशन पर दूर हो जाएगी. लेकिन पूछने पर मालूम हुआ कि भीड़ की यात्रा ट्रेन की मंजिल पर पहुंचने के बाद भी अगले 10 घंटे तक कायम रहेगी.
दरअसल यह भीड़ मुंबई के उन कामगारों की थी जो त्योहार की छुट्टियां मनाने अपने घर लौट रही थी. दम घोंट देने वाली अराजकता के बीच मैं सोच रहा था था कि यदि इस परिस्थिति में कोई महिला या बुजुर्ग फंस जाए तो उसकी क्या हालत होगी. क्योंकि आराम से सफर तो दूर डिब्बे के टॉयलट तक पहुंचना किसी चैंपियनशिप जीतने जैसा था. सुबह होने से पहले ही टॉयलट का पानी खत्म हो गया और सड़ांध हर तरफ फैलने लगी. अखबारों में पढ़ा था कि यात्रा के दौरान तकलीफ के ट्वीट पर हमारे राजनेता पीड़ितों तक मदद पहुंचाते हैं. मैने भी दांव आजमाया जो पूरी तरह बेकार गया. इस भयंकर अनुभव के बाद मैं सोच में पड़ गया कि अपने देश में सुखद तो क्या सामान्य यात्रा की उम्मीद भी की जा सकती है.
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में निवासी व वरिष्ठ पत्रकार हैं